हसरत


जिंदगी इतनी सस्ती तो होनी नहीं चाहिये
मौत कीड़े-मकोड़ों के जैसे हम इंसानों को ले चले!
परिजनों-प्रियजनों को पहुंचती है पीड़ा बेशक मर्मांतक
शेष ब्रह्माण्ड को पर नहीं फर्क पड़ता है क्या कोई भी?
एक-दूजे से हम हैैं जुड़े इस तरह
एक पत्ता भी टूटे तो कहते हैैं पड़ता है
ब्रह्माण्ड पर सारे उसका असर
मौत जब छीनती जा रही जिंदगी थोक के भाव से
चीख उठती नहीं क्यों किसी कोने से भी इस ब्रह्माण्ड के?
फर्क पड़ता नहीं क्या कोई भी सचमुच
सारे ब्रह्माण्ड को हम मनुष्यों के होने, नहीं होने से!
हद तो ये है मनुष्येतर जीवों में भी
धरती पर फर्क पड़ता नहीं दीखता
निखर आई प्रकृति उल्टे कुछ और भी
वन्यप्राणी प्रफुल्लित धमाचौकड़ी करते हैैं सड़कों पर।
तो क्या ब्रह्माण्ड का बुद्धिमान है जो प्राणी सभी से
यही उसका बस मूल्य है?

मृत्यु से तो मुझे डर नहीं, चाहता पर कि जीवन दुबारा मिले
तो जियूं ऐसे आये कि जब मौत तो
शोक उसका हो सारे ही ब्रह्माण्ड को
खालीपन मेरे जाने से महसूस ऐसा करें सब कोई
स्थान लेना मेरा फिर न मुमकिन किसी के लिये हो कभी।
रचनाकाल : 24 अप्रैल 2021

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