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Showing posts from October, 2022

अंधियारा भीतर का

मां दीप जला कर देती थी जब बचपन में हम बच्चे घर-आंगन में उसे सजाते थे कुछ दूर गांव के बाहर महरानी चौरा पीपल के नीचे भी इक दीप जलाते थे जब सांझ ढले बढ़ने लगता था अंधियारा जुगनू जैसे उन दीपों से तन-मन आलोकित होता था। अब चकाचौंध से बिजली की जगमग होता है घर सारा तम नजर नहीं आता है बाहर दूर-दूर जाने क्यों पर मन के भीतर महसूस नहीं होता पहले जैसा सुकून ऐसा लगता है गहन कालिमा बाहर की छिप गई कहीं भीतर जाकर जो दूर नहीं होती बाहरी उजालों से। इस दीवाली इसलिये प्रार्थना करता हूं यह ईश्वर से मेरे भीतर के अंधियारे को हर लेना बाहर की चमक-दमक कम हो तो हो जाये मन को लेकिन पहले सा उजला कर देना। रचनाकाल : 19 अक्तूबर 2022

पाखण्ड

आसान नहीं था लड़ना, रावण मेरे भीतर बैठा था बाहर ही इतने बना रखे थे दुश्मन, खुद से लड़ने खातिर समय न था इसलिये मुखौटा लगा लिया, बन गया राम पुतला रावण का जला दिया अपने भीतर का रावण मैंने सही-सलामत बचा लिया अब राम रूप धारण कर रावण की संस्कृति पर चलता हूं पूजता राम को और निशाचर जैसा जीवन जीता हूं। रचनाकाल : 5 अक्तूबर 2022

अनासक्ति

आसक्ति नहीं मैं जीतूं ही पर बिना लड़े हथियार डालना होता ही मंजूर नहीं इसलिये बिना परिणामों की चिंता के ही घनघोर लड़ाई लड़ता हूं अक्सर विजयी भी होता हूं। पर कभी-कभी घनघोर परिश्रम करके भी असफलता ही जब मिलती है तब अनासक्ति ही मेरी रक्षा करती है होता हूं कभी निराश नहीं बस धर्म मानकर कर्म किये जाता अपना संतुष्टि उसी में मिलती है आगे-पीछे फल भी उसका मिल जाता है। दरअसल भागता था जब मैं फल के पीछे वह मेरे आगे-आगे भागा करता था अब रखता हूं कोई आसक्ति नहीं जब तो फल मेरे पीछे-पीछे भागा करता है।   रचनाकाल : 20 सितंबर 2022