अंधियारा भीतर का


मां दीप जला कर देती थी जब बचपन में
हम बच्चे घर-आंगन में उसे सजाते थे
कुछ दूर गांव के बाहर महरानी चौरा
पीपल के नीचे भी इक दीप जलाते थे
जब सांझ ढले बढ़ने लगता था अंधियारा
जुगनू जैसे उन दीपों से तन-मन आलोकित होता था।
अब चकाचौंध से बिजली की
जगमग होता है घर सारा
तम नजर नहीं आता है बाहर दूर-दूर
जाने क्यों पर मन के भीतर
महसूस नहीं होता पहले जैसा सुकून
ऐसा लगता है गहन कालिमा बाहर की
छिप गई कहीं भीतर जाकर
जो दूर नहीं होती बाहरी उजालों से।
इस दीवाली इसलिये प्रार्थना
करता हूं यह ईश्वर से
मेरे भीतर के अंधियारे को हर लेना
बाहर की चमक-दमक कम हो तो हो जाये
मन को लेकिन पहले सा उजला कर देना।
रचनाकाल : 19 अक्तूबर 2022

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