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Showing posts from March, 2021

बुरा न मानो होली है

क्या हुआ अगर हैैं कैद घरों में दिल में तो है जोश हमारे मन ही मन में खेलेंगे इस बार बुरा न मानो होली है। क्या हुआ अगर हम जला न पाये कूड़े-कचरे की होली मन के बुरे विचारों का ही दहन करें इस बार बुरा न मानो होली है। अच्छाई की ही जीत सदा होती है हम ये जानते हैैं हारेगा कोरोना का भी राक्षस हमसे इस बार बुरा न मानो होली है। हरदम से हम हैैं उत्सवप्रिय दुनिया की कोई भी विपदा हस्ती न मिटा पायेगी हम इंसानों की दु:ख-कष्टों की ज्वाला में तप निखरेंगे हम, खेलेंगे फिर से रंग आगामी साल बुरा न मानो होली है। रचनाकाल : 29 मार्च 2021

इच्छा-पूर्ति

मैं नहीं चाहता ईश्वर मेरी पूर्ण करे अभिलाषाएं मैं ईश्वर की अभिलाषाओं को पूर्ण कर सकूं बस इतनी ही इच्छा है कई बार हुआ है ऐसा मेरी अभिलाषाएं अनुचित थीं पूरी कर देता ईश्वर तो मेरा पतन सुनिश्चित था अक्सर ही निष्पक्ष भाव से सोच नहीं पाता हूं अपना भला-बुरा इसलिये प्रार्थना करता हूं ईश्वर से द्रवित न हो वह मेरी इच्छाओं पर करे वही जो मेरी खातिर उसको उचित लगे हो सकता हूं मैं गलत मगर ईश्वर हो सकता नहीं सदा कोशिश करता हूं इसीलिये जो अच्छा लगता ईश्वर को बस काम हमेशा करूं वही, समझूं ईश्वर की इच्छा को। अद्भुत है यह जितनी ही कोशिश करता हूं ईश्वर की इच्छाओं को पूरा करने की उतनी ज्यादा वह मेरी इच्छा पूरी करता जाता है होता मुझको संकोच अनुग्रह देख-देख कर उसका उसकी रची हुई दुनिया को ज्यादा से ज्यादा लौटाने की मैं कोशिश करता जाता हूं। रचनाकाल : 26 मार्च 2021

जीवन-मृत्यु

जिंदगी नहीं रुकती कभी भी एक पल को भी सृजन जारी निरंतर है पुराना खत्म होता है नये की बारी आती है हमीं बस चाहते  हैं अपने हिस्से का समय थम जाय हमेशा को अमर हो जायं! मगर थमना तो मरना है पुराना खत्म होगा जब तभी होगा नया पैदा अजब है यह विरोधाभास डरते हैं हम मरने से खुशी लेकिन मनाते हैं कोई जब पैदा होता है बिना लेकिन मरे कैसे जनम लेगा नया कोई! सृजन जब बंद हो जायेगा मरना भी नहीं होगा समय थम जायेगा जब जिंदगी भी खत्म होगी तब भला तब जन्म जैसी ही जीवन पूर्ण जी करके मनाते क्यों नहीं खुशियां हम मरने की! रचनाकाल : 25 मार्च  2021

प्रायश्चित

है पता मुझे मैं हारी बाजी खेल रहा हूं नहीं जीत की है कोई उम्मीद, दूर इतना आया चलते-चलते अब मंजिल तक तो पहुंच नहीं सकता हूं एक जनम में उल्टी दिशा सैकड़ों सालों से थी चलने की पर लौटा नहीं अभी भी यदि तो सर्वनाश जल्दी तय है। मानना कठिन तो है बेहद गलती अपनी समझे थे जिसको उन्नति वह थी राह तबाही की पर आंख मूंद कर चलते जाना भी अब सम्भव नहीं सामने आता ही जा रहा रूप विकराल प्रकृति का नहीं किया यदि प्रायश्चित अब भी तो बचना मुश्किल है। नुकसान हो चुका इतना भरपाई करने में लग जायेंगी सदियां तब तक जीना होगा कठिन परिस्थितियों में छोड़ कर सुख-सुविधाएं सहने होंगे कष्ट तपस्या सदियों तक करनी होगी। इसलिये बदलता हूं परिभाषा हासिल की उम्मीद नहीं रखता हूं दुख के बदले में सुख मिलने की नेकी ज्यादा से ज्यादा कर दरिया में डालता जाता हूं दुख-कष्टों में तप कर अपने  पुरखों की गलती का प्रायश्चित करता जाता हूं रचनाकाल : 19 मार्च 2021

बहुत देर की लौट कर आते-आते

खूब खुश था मैं इस बार जाते हुए गांव अपने शहर में गुजारा था वनवास जो दो दशक का खत्म था हो चुका अब वो कर्तव्य पूरा हुआ मेरा बच्चों के प्रति पैर पर अब खड़े थे वो अपने किसानी मुझे करनी थी चला आया था स्थगित करके जिसे सालों पहले शहर में। गांव लेकिन नहीं था वो अब पहले सा, कैद थे खेत सारे बाड़-बंदी बिना अब था मुमकिन नहीं बचा पाना फसल गाय-बैलों को अब बांधता था नहीं कोई, होती थी ट्रैक्टर से खेती भटकते थे आवारा पशु खेत चर जाते थे रात-दिन जो थे पशुधन कभी आज वे ही थे रोड़ा बने राह में अन्नदाताओं के। मैं था सदमे में यह देखकर जिसका डर था वही हो चुका था तबाही का संकेत था यह भयानक जो आने ही वाली थी अब गांव-देहात थे मौत के पंजे में  जो जकड़ती ही जाती थी अपना शिकंजा दिनोंदिन खत्म होने ही वाला था सबकुछ सहस्त्राब्दियों की विरासत थी जो बस यही चीख थी व्याप्त मन में मेरे देर इतनी क्यों की लौट कर आने में! रचनाकाल : 15 मार्च 2021

लाकडाउन

जिंदगी जकड़ जाये  जब भय के साये में  दांव पर लगे हों प्राण छिन्न-भिन्न हो जाये  ताना-बाना जीवन का स्वप्न बन के रह जाये जब सुखद दिनों की याद  ढूढ़ता है मन तब ये हो गई कहां गलती? ऐसा तो नहीं खुद को  अपने सारे अपराधों  की नहीं खबर कोई  पाप का घड़ा भरना  एक दिन तो तय ही था  प्रकृति का विक्षुब्ध होना  एक दिन नियत ही था। इसके पहले लग जाये  लाकडाउन धरती पर युगों लम्बा निद्रामग्न हो जाये धरा सारी  मांगता हूं मौका एक  कर सकूं सभी अपने  अपराधों का परिमार्जन  निखर जाये प्रकृति सारी। जानता हूं अब सम्भव  नहीं है लौटना पीछे  नियत जो है वही होगा  मगर फिर भी  नहीं है छूटती उम्मीद  जब तक सांस में है सांस  तब तक आस बाकी है! रचनाकाल : 11 मार्च 2021

बेचैनी

मैंने खुद ही अपने भीतर की बेचैनी को मार दिया बेचैनी जो आवश्यक थी परिवर्तन लाने की खातिर कुछ करने को बेचैन किये रहती थी जो मुझको हरदम जिसके रहते पल भर को भी पड़ता था मुझको चैन नहीं बेचैनी जिसके चलते सारी दुनिया डरती थी मुझसे लगता  था उसको पागल हूं मैं सनकी हूं जाने दुनिया में कौन बवंडर लाने वाला हूं बेचैनी मुझसे देखी नहीं गई दुनिया की करने की खातिर चिंता उसकी दूर मार दी है मैंने अपने भीतर की बेचैनी सबके जैसा ही बना लिया है खुद को भी इंसान सभ्य जीवन जीता हूं साधारण, करता हूं धरती का शोषण अब कोई खतरा नहीं मनुष्यों को अपने ही भीतर से रथ अश्वमेध का उनका दुनिया में दौड़ा ही जाता है कुछ भी बाकी है नहीं जीतने को अब शासन एकछत्र सब जीवों पर करने की तैयारी है। लेकिन कैसा वायरस सभी को ग्रसता जाता है  तूफान उठ रहा असमय कैसा, धरती क्यों लगती बेचैन सभी कुछ नष्ट-भ्रष्ट क्यों दीख रही है आतुर करने को? क्यों लगता मुझको खत्म नहीं करनी थी अपने भीतर की बेचैनी दुनिया का विरोध सहकर भी सबको रखना था बेचैन नहीं करने देना था शोषण धरती का! रचनाकाल :  5 मार्च 2021

अनजाना भय

सुन्न सा पड़ गया हो जैसे दिमाग पथरा गई है देह सब कुछ हो गया है स्थिर क्या इसी को मृत्यु कहते हैं? हठीले बैल जैसे पैर कर रहे इंकार चलने से जाने कौन सा अनजान भय छा गया है आंख में दीखने में तो बुरा इतना नहीं लगता भविष्य कौन सी है चीज जो दिखती नहीं फिर भी डराती है? चल रहा सब कुछ सहज गति से कहीं भी दीखता कोई नहीं व्यवधान दुनिया कर रही उन्नति बड़ी रफ्तार से हो रहा भयभीत पर मैं देख कर गति तेज पीछे चाहता हूं लौटना। कुछ नहीं आता समझ भयभीत हूं किस बात पर मैं है कहीं सचमुच कोई खतरा तरक्की के सुनहरे मार्ग पर या सिर्फ है मेरा वहम मैं हूं नहीं काबिल लगा सकता नहीं हूं रेस अंधी होड़ कर सकता नहीं हूं मौत से! रचनाकाल : 4 मार्च 2021

सुख से दूरी

आते हैं बेशक सुखद जिंदगी में पड़ाव रुक सकता ज्यादा देर नहीं पर वहां जरूरत भर संचित कर शक्ति निकल पड़ता हूं फिर से कांटों भरी कठिन राहों पर। कई बार हुआ है ऐसा झोंका सुखद हवा का लाया ऐसी नींद देर तक सोता ही रह गया बदन में छाई ऐसी जकड़न मुश्किल लगने लगा बढ़ाना एक कदम भी। तब से डरता हूं मैं सुखद पलों से भरमाते हैं बहुत जल्द वे कांटे मुझको सतत जागरुक रखते हैं इसीलिये रस लेता उतना ही बस जिंदा रहने को जो लगे जरूरी बेहद दम टूट न जाये बीच राह में जिससे उससे ज्यादा तनिक जुटाना भी सुख-सुविधा मुझको भर देता अपराध बोध से जान बूझ कर चुनता हूं मैं कठिन मार्ग स्वेच्छा से सारे दुख कष्टों को सहता जाता हूं। रचनाकाल : 1 मार्च 2021

सहज प्रवाह

मैं नहीं मांगता ईश्वर से वरदान सुखी होने का लय बस बनी रहे जीवन की, सुर में ही हों सारे काम बेसुरा कभी भी होने पाऊं नहीं, यही बस इच्छा है लयहीन तो नहीं कुछ भी इस दुनिया में धरती, सूरज, चांद, सितारे सब चलते हैं अपनी लय में जीव मनुष्येतर भी सभी समझते ईश्वर के संकेतों को बस मानव ही हम भटक गये शायद पथ से गढ़ तो ली भाषा नई, बना ली दुनिया अपनी कृत्रिम भूलते चले गए पर प्रकृतिजन्य अहसासों को। संगीत हमें ले जाता है उस दुनिया में सब कुछ है सुर में जहां नहीं बेसुरा कोई सुख दुख से परे असीम जहां मिलता मन को आनंद कि दुनिया रंगमंच है सभी भूमिका अदा कर रहे अपनी इस अनुपम नाटक में खलल न डालूं अपनी कर्कशता से बाधित होने पाये नहीं नियति का सहज चक्र सब कुछ हो स्वाभाविक बहती दरिया जैसा उत्सव जन्म की तरह जहां मनाएं सभी मृत्यु का भी कोई आघात सहनसीमा के बाहर न हो जहां स्वाभाविक ऐसी दुनिया में जी सकूं यही बस इच्छा है। रचनाकाल : 26 फरवरी 2021