बेचैनी

मैंने खुद ही अपने भीतर की बेचैनी को मार दिया
बेचैनी जो आवश्यक थी परिवर्तन लाने की खातिर
कुछ करने को बेचैन किये रहती थी जो मुझको हरदम
जिसके रहते पल भर को भी पड़ता था मुझको चैन नहीं
बेचैनी जिसके चलते सारी दुनिया डरती थी मुझसे
लगता  था उसको पागल हूं मैं सनकी हूं
जाने दुनिया में कौन बवंडर लाने वाला हूं
बेचैनी मुझसे देखी नहीं गई दुनिया की
करने की खातिर चिंता उसकी दूर
मार दी है मैंने अपने भीतर की बेचैनी
सबके जैसा ही बना लिया है खुद को भी इंसान सभ्य
जीवन जीता हूं साधारण, करता हूं धरती का शोषण
अब कोई खतरा नहीं मनुष्यों को अपने ही भीतर से
रथ अश्वमेध का उनका दुनिया में दौड़ा ही जाता है
कुछ भी बाकी है नहीं जीतने को अब
शासन एकछत्र सब जीवों पर करने की तैयारी है।
लेकिन कैसा वायरस सभी को ग्रसता जाता है
 तूफान उठ रहा असमय कैसा, धरती क्यों लगती बेचैन
सभी कुछ नष्ट-भ्रष्ट क्यों दीख रही है आतुर करने को?
क्यों लगता मुझको खत्म नहीं करनी थी अपने भीतर की बेचैनी
दुनिया का विरोध सहकर भी सबको रखना था बेचैन
नहीं करने देना था शोषण धरती का!
रचनाकाल :  5 मार्च 2021

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