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Showing posts from November, 2022

आत्म-संघर्ष

मैं अक्सर ही करता हूं यह महसूस कि मेरे अलग-अलग दो चेहरे हैैं बाहर से जैसा दिखता हूं भीतर से बिल्कुल नहीं उसी के जैसा हूं यह दोहरापन अपराधबोध से भी मुझको भर देता है पर कोशिश करके भी मैं भीतर-बाहर से समरूप नहीं बन पाता हूं। खुद को ठहराने खातिर सच्चा कभी-कभी देता हूं यह भी तर्क पेड़-पौधे दिखते हैं जैसे उनकी जड़ भी तो होती है उससे भिन्न कि भीतर-बाहर का अलगाव प्रकृति के ही स्वभाव में शामिल है! संतुष्ट नहीं पर हो पाता अपने तर्कों से खुद ही भीतर-बाहर से हो सकूं पारदर्शी कमियां सब साफ नजर आयें मेरी आसानी से कर सकूं ताकि निर्मूल उन्हें दिन-रात इसी बस कोशिश में ही रहता हूं बाहर से जैसा दिखता हूं अंदर से भी वैसा ही बनने की खातिर संघर्ष स्वयं से करता हूं। रचनाकाल : 25-26 नवंबर 2022

मध्यम मार्ग

पहले यह सोचा करता था पथ से सारी बाधाओं को यदि कर डालूं मैं दूर जिंदगी खुशियों से भर जायेगी! चिंता न रहे यदि मन में दौलत हो घर में भरपूर भला क्या और चाहिये जीवन में इससे बढ़कर! पर जैसे ही सब दूर हुईं बाधाएं चिंतामुक्त हुआ मन ज्यों ही जीवन नीरस लगने लगा ठहरने पर जैसे सड़ने लगता है पानी छोटे-मोटे दोषों से मन भरने लगा निरंकुश होकर तन-मन लगने लगा पराया मुझको खुद से ही! इसलिये नहीं अब कोशिश करता दूर रहें बाधाएं या धन-दौलत हो भरपूर राह में आते जो दुख-कष्ट उन्हें सहता हूं फिर भी आगे बढ़ता रहता हूं कि जैसे ढीले हों यदि तार बेसुरी हो जाती है वीणा ज्यादा कसने पर भी मगर टूट जाने का खतरा रहता है सम पर जैसे सुमधुर संगीत निकलता है जीवन भी मध्य मार्ग में ही सर्वाधिक उन्नति करता है। रचनाकाल : 21-22 नवंबर 2022

हिंसा-प्रतिहिंसा

मैं नहीं चाहता था लड़ना पर कदम-कदम पर इतने थे मतभेद कि हरदम लड़ते रहना पड़ता था मन होता बेहद क्षुब्ध देख करके विनाश पर होती खत्म लड़ाई, उसके पहले ही तैयार दूसरी मिलती थी हर एक लड़ाई में थोड़ी-थोड़ी मानवता मरती थी धरती भी होती थी तबाह धीरे-धीरे मतभेद खत्म होने का पर सिलसिला नहीं रुक पाता था। जब देखा मैंने युद्ध अवश्यंभावी हैैं तब नया ढंग लड़ने की खातिर खोज लिया अब नहीं चाहता क्षति पहुंचाऊं दुश्मन को करता हूं खूब विरोध मगर हथियार अहिंसा का प्रयोग में लाता हूं सत्याग्रह है इतना अमोघ टिक पाता कोई शस्त्र नहीं इसके आगे झुकती जाती हैैं दुुनिया भर की सत्ताएं। सहसा खुलती है नींद, टूटता है सपना पाता हूं सपने में बापू आये थे अपनी सुना रहे थे यादें कैसे दुनिया को लड़ने का दिया तरीका जिसमें नहीं हारता था कोई होती थी सबकी जीत, मगर हमने ही उसको भुुला दिया दुनिया भर में खुशहाली जो ला सकता था नायाब ढंग वह गंवा दिया! शर्मिंदा हूं खो दिया रत्न हमने अमूल्य आने वाली पीढ़ियां समझ पायें शायद उसका महत्व दुनिया से नफरत, हिंसा भाव मिटाने को जिसके पदचिह्नों पर शायद यह दुनिया चले युगों तक, पर क्या हमें माफ कर पायेंगे हम लो

सपने

सपने ऊंचे देखा करता योजना बनाता था पहले मैं बड़ी-बड़ी पूरे होते थे नहीं मगर खुद पर झुंझलाया करता था। अब सिर्फ लक्ष्य तय करता पूरे दिन का खुद को रख पाऊं अनुशासित होने पाऊं नहीं निरंकुश कोशिश दिन भर बस यह करता हूं। बढ़ता जाता हूं एक-एक पग आगे सपने होते हैैं साकार बिना देखे ही अब तो बड़े-बड़े। रचनाकाल : 12 नवंबर 2022

सार्थकता

मैं डरता था अनहोनी से दिन बीत जाय जब ठीक-ठाक तो शुक्र मनाया करता था। करता था लेकिन जब हिसाब क्या हासिल निकला जीवन का तब पछतावा भी होता था क्या सिर्फ जिये जाने की खातिर जीवन हमको मिलता है? इसलिये नहीं अब कोशिश करता जीवन यह निर्विघ्न रहे सार्थक लगता है जीना जब महसूस तभी होता सुकून सार्थकता की खातिर अब तो कई बार विघ्न-बाधाओं को भी आमंत्रित कर लेता हूं। दरअसल मुझे यह पता चल चुका जीवन हो निर्विघ्न अगर मन बेकाबू हो जाता है इसलिये नहीं अब डरता हूं बाधाओं से वे मुझ पर अंकुश रखती हैैं जीवन को सार्थक करती हैैं। रचनाकाल : 13 नवंबर 2022

ईश्वर का अस्तित्व

था मुझे पता वे गलत नहीं जो कहते हैैं अस्तित्व नहीं है ईश्वर का पर यह भी था मालूम मुझे है नहीं आत्म-अनुशासन इतना उनमें  भय के बिना किसी ईश्वर के भी बच सकें निरंकुश होने से। इसलिये नहीं मैं करता यह घोषणा कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं सच तो यह है ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता इससे हम मानें या ना मानें, पर हमको पड़ता है फर्क बदल जाती है सोच हमारी संबल मिलता है खुद को अनुशासित रखने का। जब बन जायेंगे पूर्ण पुरुष तब खुद ही नहीं रहेगी आवश्यकता ईश्वर का आश्रय लेने की तब यह प्रश्न निरर्थक हो जायेगा ईश्वर है या नहीं सभी कुछ ईश्वरमय हो जायेगा हम भी ईश्वर बन जायेंगे! रचनाकाल : 6 नवंबर 2022