सार्थकता
मैं डरता था अनहोनी से
दिन बीत जाय जब ठीक-ठाक
तो शुक्र मनाया करता था।
करता था लेकिन जब हिसाब
क्या हासिल निकला जीवन का
तब पछतावा भी होता था
क्या सिर्फ जिये जाने की खातिर
जीवन हमको मिलता है?
इसलिये नहीं अब कोशिश करता
जीवन यह निर्विघ्न रहे
सार्थक लगता है जीना जब
महसूस तभी होता सुकून
सार्थकता की खातिर अब तो
कई बार विघ्न-बाधाओं को भी
आमंत्रित कर लेता हूं।
दरअसल मुझे यह पता चल चुका
जीवन हो निर्विघ्न अगर
मन बेकाबू हो जाता है
इसलिये नहीं अब डरता हूं बाधाओं से
वे मुझ पर अंकुश रखती हैैं
जीवन को सार्थक करती हैैं।
रचनाकाल : 13 नवंबर 2022
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