हिंसा-प्रतिहिंसा
मैं नहीं चाहता था लड़ना
पर कदम-कदम पर इतने थे मतभेद
कि हरदम लड़ते रहना पड़ता था
मन होता बेहद क्षुब्ध देख करके विनाश
पर होती खत्म लड़ाई, उसके पहले ही
तैयार दूसरी मिलती थी
हर एक लड़ाई में थोड़ी-थोड़ी मानवता मरती थी
धरती भी होती थी तबाह धीरे-धीरे
मतभेद खत्म होने का पर सिलसिला नहीं रुक पाता था।
जब देखा मैंने युद्ध अवश्यंभावी हैैं
तब नया ढंग लड़ने की खातिर खोज लिया
अब नहीं चाहता क्षति पहुंचाऊं दुश्मन को
करता हूं खूब विरोध मगर
हथियार अहिंसा का प्रयोग में लाता हूं
सत्याग्रह है इतना अमोघ
टिक पाता कोई शस्त्र नहीं इसके आगे
झुकती जाती हैैं दुुनिया भर की सत्ताएं।
सहसा खुलती है नींद, टूटता है सपना
पाता हूं सपने में बापू आये थे
अपनी सुना रहे थे यादें
कैसे दुनिया को लड़ने का दिया तरीका
जिसमें नहीं हारता था कोई
होती थी सबकी जीत, मगर
हमने ही उसको भुुला दिया
दुनिया भर में खुशहाली जो ला सकता था
नायाब ढंग वह गंवा दिया!
शर्मिंदा हूं खो दिया रत्न हमने अमूल्य
आने वाली पीढ़ियां समझ पायें शायद उसका महत्व
दुनिया से नफरत, हिंसा भाव मिटाने को
जिसके पदचिह्नों पर शायद
यह दुनिया चले युगों तक, पर
क्या हमें माफ कर पायेंगे
हम लोगों के ही वंशज
उनके अच्छे पूर्वज होने का
हमने अपना हक अदा किया?
जो राह दिखाई गांधी ने
क्या उसी मार्ग पर चल कर हमने
मतभेदों को दूर किया?
सच तो यह है जिस राह चल रहे आतंकी
सरकारें भी चल रहीं आज सब उस पथ पर
जल रही समूची दुनिया
हिंसा-प्रतिहिंसा की ज्वाला में
हम सहभागी हैैं या कि मूकदर्शक हैैं रक्तपात के इस
इतिहास हमें क्या इसकी खातिर
कभी माफ कर पायेगा?
रचनाकाल : 14-20 नवंबर 2022
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