बहुत देर की लौट कर आते-आते


खूब खुश था मैं इस बार जाते हुए गांव अपने
शहर में गुजारा था वनवास जो दो दशक का
खत्म था हो चुका अब वो कर्तव्य पूरा हुआ मेरा बच्चों के प्रति
पैर पर अब खड़े थे वो अपने किसानी मुझे करनी थी
चला आया था स्थगित करके जिसे सालों पहले शहर में।

गांव लेकिन नहीं था वो अब पहले सा, कैद थे खेत सारे
बाड़-बंदी बिना अब था मुमकिन नहीं बचा पाना फसल
गाय-बैलों को अब बांधता था नहीं कोई, होती थी ट्रैक्टर से खेती
भटकते थे आवारा पशु खेत चर जाते थे रात-दिन
जो थे पशुधन कभी आज वे ही थे रोड़ा बने राह में अन्नदाताओं के।

मैं था सदमे में यह देखकर जिसका डर था वही हो चुका था
तबाही का संकेत था यह भयानक जो आने ही वाली थी अब
गांव-देहात थे मौत के पंजे में 
जो जकड़ती ही जाती थी अपना शिकंजा दिनोंदिन
खत्म होने ही वाला था सबकुछ सहस्त्राब्दियों की विरासत थी जो
बस यही चीख थी व्याप्त मन में मेरे देर इतनी क्यों की लौट कर आने में!
रचनाकाल : 15 मार्च 2021

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