लाकडाउन

जिंदगी जकड़ जाये 
जब भय के साये में 
दांव पर लगे हों प्राण
छिन्न-भिन्न हो जाये 
ताना-बाना जीवन का
स्वप्न बन के रह जाये
जब सुखद दिनों की याद 
ढूढ़ता है मन तब ये
हो गई कहां गलती?

ऐसा तो नहीं खुद को 
अपने सारे अपराधों 
की नहीं खबर कोई 
पाप का घड़ा भरना 
एक दिन तो तय ही था 
प्रकृति का विक्षुब्ध होना 
एक दिन नियत ही था।

इसके पहले लग जाये 
लाकडाउन धरती पर युगों लम्बा
निद्रामग्न हो जाये धरा सारी 
मांगता हूं मौका एक 
कर सकूं सभी अपने 
अपराधों का परिमार्जन 
निखर जाये प्रकृति सारी।

जानता हूं अब सम्भव 
नहीं है लौटना पीछे 
नियत जो है वही होगा 
मगर फिर भी 
नहीं है छूटती उम्मीद 
जब तक सांस में है सांस 
तब तक आस बाकी है!
रचनाकाल : 11 मार्च 2021


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