अनजाना भय
सुन्न सा पड़ गया हो जैसे दिमाग
पथरा गई है देह
सब कुछ हो गया है स्थिर
क्या इसी को मृत्यु कहते हैं?
हठीले बैल जैसे पैर
कर रहे इंकार चलने से
जाने कौन सा अनजान भय
छा गया है आंख में
दीखने में तो बुरा
इतना नहीं लगता भविष्य
कौन सी है चीज जो दिखती नहीं
फिर भी डराती है?
चल रहा सब कुछ सहज गति से
कहीं भी दीखता कोई नहीं व्यवधान
दुनिया कर रही उन्नति बड़ी रफ्तार से
हो रहा भयभीत पर मैं
देख कर गति तेज
पीछे चाहता हूं लौटना।
कुछ नहीं आता समझ
भयभीत हूं किस बात पर मैं
है कहीं सचमुच कोई खतरा
तरक्की के सुनहरे मार्ग पर
या सिर्फ है मेरा वहम
मैं हूं नहीं काबिल
लगा सकता नहीं हूं रेस अंधी
होड़ कर सकता नहीं हूं मौत से!
रचनाकाल : 4 मार्च 2021
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