वरदान या अभिशाप?


बेशक हैैं हम इंसान सभी से बुद्धिमान प्राणी इस दुनिया में
पर अक्सर ही होता मुझको संदेह कि अपनी तीव्र बुद्धि से
हासिल क्या कर पाये हैैं हम अपने या औरों की खातिर अब तक?
दुनिया के सारे प्राणी जितना लेते हैैं
उतना या उससे ज्यादा देकर जाते हैैं इस धरती को
हमने अब तक क्या दिया किसी को या खुद को समृद्ध बनाया कितना?
क्या हिस्सा लेना हड़प किसी का, शोषण करना
या खुद को कमजोर बनाते जाना ही पैमाना है चतुराई का?
मजबूरी में या प्रकृतिजन्य नियमों के वश
प्रतिकूल मौसमों को सह कर सारे प्राणी मजबूत हुए हैं जैसे
हम भी स्वेच्छा से सारे दु:ख-कष्टों को सह कर
क्या नहीं बना सकते थे अपनी काया को भी ताकतवर?
परजीवी जैसे खून चूसकर औरों का जीते हैं 
हम भी बनने की खातिर ही आरामतलब
दोहन क्या करते नहीं जा रहे हैैं सारे संसाधन का?
बेशक हम हैैं बुद्धिमान प्राणी सबसे इस दुनिया में
पर यही बुद्धि का होना है यदि हश्र अगर
तो जिसको हम वरदान मानते आये हैं अब तक क्या वह
अभिशाप नहीं है दुनिया का?
रचनाकाल : 3अप्रैल 2021

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