अभियोग


भय से व्याकुल तो इतने कभी हम न थे
मौत नजदीक इतने कभी भी न थी
किसकी बारी कब आ जाये कुछ तय नहीं
जाने वालों से ज्यादा भयानक दशा बचने वालों की है।
मृत्यु से तो अपरिचय कभी भी न था
जो भी आता है जाना तो उसका सुनिश्चित ही है
छीन कर किंतु गरिमा, सरेआम लाचार कर
घेर कर झुण्ड में यूं शिकारी के जैसी कुटिल रीति से
प्राण लेना ही था क्या उचित मृत्यु के देवता के लिये?
पेड़ से फल पके जैसे गिरते सहज भाव से
हम भी करते हैैं उनको विदा गाजे-बाजे के संग
जिंदगी पूर्ण जीकर जो मरते हैैं अंतिम समय
किंतु असमय किसी को भी धरती से करना विदा प्राकृतिक तो नहीं!
तोड़ते हैैं नियम हम प्रकृति के तो मिलती रही है सजा
किंतु ईश्वर ही तोड़े नियम तो सजा उसकी किसको मिले?
मानते हैैं हम बेशक हुई होंगी हमसे कई गलतियां
छीन लेना ही जीवन मगर बदले में क्या सही न्याय है?
फैसले की कभी आयेगी जब घड़ी
हम तो मंजूर कर लेंगे अपनी सभी गलतियों की सजा
पा सकेंगे निरपराध ईश्वर भी क्या खुद को पूरी तरह?
रचनाकाल : 16-17 अप्रैल 2021

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक