अंत से पहले

मैंने देखी हैं इंसान की खूबियां
उसका होना खतम मुझसे देखा नहीं जा रहा 
राह भटका था बेशक वो लेकिन सजा
इतनी भारी तो मिलनी नहीं चाहिये
खत्म दुनिया से हो उसका अस्तित्व ही, ये उचित तो नहीं!
पर नहीं हूं मैं न्यायाधिपति
मुझको कोई शिकायत नहीं
जो भी लेगी प्रकृति फैसला
जो भी तय होगा अपराध का दण्ड
मंजूर है वो मुझे 
मैं हूं हिस्सा मनुष्यों का
इंकार मुझको नहीं है विरासत से अपनी वो जैसी भी है।
खत्म होना ही होगा अगर दुनिया से
तब तो लेकर विदा हम चले जायेंगे
बच गये किंतु इस अग्नि में स्नान कर
फिर से कोशिश करेंगे बनाने की दुनिया जो निर्दोष हो
गलतियां हमसे बेशक हुई हैं बहुत
कर्ज हम पर मनुष्येतर जीवों का है
पर शुरू से ही ऐसे तो थे हम नहीं
देवता भी तो हम ही बने थे कभी!
आज जाना ही है तो चले जायेंगे
छोड़ जायेंगे लेकिन धरा पर ये प्रश्न
इतनी निर्मम सजा के क्या हकदार थे?
रचनाकाल : 8 अप्रैल 2021

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