विनाश और आजादी
वो रात बहुत ही गहरी थी
धरती डूबी थी पानी में
आई थी प्रलय भयानकतम
बस गिने-चुने ही जीव बचे थे दुनिया में।
था बेहद मुश्किल समय
बचाये रखना था अस्तित्व किसी भी तरह
मगर उस कठिन काल में भी जिंदा
इंसान रहा आया
जूझ कर सारे झंझावातों से भी
करता रहा विकास
मिला अनुकूल समय तो
खूब फला-फूला फिर वह
सिरमौर बन गया धरती पर सब जीवों का।
आई है फिर से रात वही बेहद गहरी
फिर से हो चुका विनाश शुरू
है कठिन समय अस्तित्व बचाये रखने का
सभ्यता ध्वस्त होने को है
जो पहुंच चुकी है शायद अपने चरम बिंदु पर
क्या पता बचेगा कौन
राज किन जीवों का होगा फिर से धरती पर
हम इंसान बचेंगे
या अतीत के पन्नों में खो जायेंगे!
पर मूक प्राणियों ने कर लिया विकास अगर
यदि समझ गये वे शोषण कैसे हुआ अभी तक उनका
तो क्या मानव का विध्वंस नहीं बन जायेगा
आजादी का पर्व मनुष्येतर सब जीवों का!
रचनाकाल : 9 अप्रैल 2021
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