जीने का ढंग


अब तक जीता रहा डरते-डरते ही मैं
मौत आ जाय कब कुछ भी तय था नहीं
भय भरा था, नहीं जिंदगी में थी कोई भी जिंदादिली
किंतु आई महामारी जब एकदम
मौत टूटी कहर बन के धरती के सारे ही इंसानों पर
भय अचानक ही भीतर से सब छंट गया
सबकुछ स्वीकार मैंने सहज कर लिया
मान कर यह कि जो भी बची जिंदगी, मिली बोनस है वह
रोज जीता हूं खुश हो के भय छोड़ कर
मानता हूं कि ईश्वर का अहसान है
एक दिन और उसने मुझे जीने खातिर दिया।
जब समझता था मैं जिंदगी पर मेरा हक है सौ साल का
छीन ले ना समय मेरे हिस्से का, डरता था तब मौत से
किंतु हक छोड़ कर आने वाले दिनों पर
किया मैंने जब से है तैयार खुद को हरएक आपदा के लिये
मेरे भय सारे खुशियों में रूपांतरित हो गये
बन गया सच्चे अर्थों में अपरिग्रही
एक दिन से नहीं ज्यादा रखता हूं संचित कभी जिंदगी
भय नहीं कोई लुटने का, जीता हूं निश्चिंत हो करके अब।
रचनाकाल : 21 अप्रैल 2021

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