उम्मीदों के गीत


जब घना अंधेरा छाया हो
 हाथों को सूझे हाथ नहीं
जब बांह पसारे मौत खड़ी हो
भय पसरा हो दुनिया में
मैं उम्मीदों के गीत चाहता हूं लिखना।
मैं कभी न था हक में धरती के शोषण के
हरदम विरोध करता आया
होता विकास जो तथाकथित
पर झगड़े का यह समय नहीं
जिस मानवता का हिस्सा हूं
चाहता बचाना हूं हर कीमत पर उसको।
मालूम मुझे है कल फिर से
हालत वैसी हो जायेगी
हो जायेंगे फिर से मनुष्य उच्छृंखल
फिर से जुट जायेंगे करने में वे
पर्यावरण विनाश, और मैं भी कर दूंगा
फिर से शुरू विरोध, मगर
संकट के इस क्षण में मैं
रह सकता नहीं तटस्थ
नष्ट मानवता को यूं
होते देख नहीं सकता
विकराल महामारी जो
करती जाती है भयभीत
पराजित करने खातिर उसको मैं
उम्मीद चाहता हूं हर मानव के मन में पैदा करना
रचनाकाल : 4 अप्रैल 2021

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