दु:स्वप्नों का अंत


आजकल सपनों से डर लगता है
अंधविश्वासी तो मैं कभी न था
पर समय आजकल इतना ज्यादा मुश्किल है
सपने में भी यदि मौत किसी की होती है
असली जैसा मन थर-थर कांपने लगता है।
होती हैैं इतनी मौत रोज इन दिनों
कि मन में यही प्रार्थना चलती है
हे ईश्वर सबकुछ शुभ करना
सब सही सलामत रहें मेरे प्रियजन-परिजन।
लज्जित लेकिन हो उठता हूं अगले ही पल अपने ऊपर
मर रहे रोज जो उनके प्रियजन-परिजन के
दारुण दु:ख का है क्या कोई भी मोल नहीं!
उनके दु:ख में सहभागी होना है क्या मेरा धर्म नहीं!!
उतनी ही शिद्दत से लेकिन
उनका दु:ख महसूस नहीं कर पाता हूं
तब जानबूझकर सहता हूं उनसे ज्यादा दु:ख-कष्ट
कि छोटी कर न सकूं उनकी लकीर पीड़ा की पर
उनसे भी ज्यादा बड़ी खींच दूं रेखा अपने कष्टों की
महसूस अकेला नहीं करें वे
खुद को दु:ख के सागर में
कुछ इसी तरह से सबके दु:ख में
कोशिश करता हूं मैं हाथ बंटाने की।

पाता हूं तब दु:ख मेरे कोई निजी नहीं रह जाते हैैं
दु:स्वप्नों से छुटकारा मिलता जाता है
परिवार मेरा धरती के जितना विस्तृत होता जाता है।
रचनाकाल : 11 अप्रैल 2021

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