उजाले की ओर
समय निकलता जाता हैै
जल्दी ही छंट जायेगा सब अंधियारा
होती जायेंगी प्रखर सूर्य की किरणें
गहमागमी बढ़ती जायेगी
पर मेरी तो कुछ नहीं हो सकी तैयारी
बोझिल हैैं पलकें निद्रा से
क्या यूं ही बासीपन से, होकर अस्त-व्यस्त
मैं अगले दिन में जाऊंगा?
लुट गई जमा-पूंजी जो दी थी पुरखों ने
मैंने जो संचित किये मूल्य
वे निशाचरी जीवन में तो जंच जाते हैैं
पर दिन के गहन उजाले में
डरता हूं, अपना रूप देख आईने में
खुद ही तो मैं भयभीत नहीं हो जाऊंगा!
संक्रांति काल में बदहवास करता हूं कोशिश
करके थोड़ा पॉलिश खुद को चमका लूं
पर जैसे-जैसे बढ़ता जाता है प्रकाश
खुलती जाती है कलई समूची, होता जाता बेनकाब
अगली पीढ़ी जो सोचेगी वो सोचेगी
पर अपनी ही नजरों में हे भगवान, नजर आता कैसा!
क्या अंधकार युग बनकर ही मेरा यह युग
इतिहास जमा हो जायेगा?
रचनाकाल : 15 जनवरी 2022
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