क्या पाया, क्या खोया!


सिलसिला आज का है नहीं, काल प्राचीन से ही
धरती लेती है करवट, बदलते हैैं मौसम
बदलती हैैं ऋतुएं कई साल भर के ही भीतर
कई आपदाएं तो आती हैैं सदियों में ही लौटकर
जानते हैं मनुष्येतर प्राणी सभी
होगा कब कैसा परिवर्तन धरती के ऊपर
स्वयं को वे तैयार करते हैैं वैसे समय के लिये
जुटाते हैैं खाना, बढ़ाते वजन गर्मियों के लिये
दूर देशों का पक्षी सफर करते हैैं
आपदाओं की आहट समझते हैैं वो
जंगली जिनको हम मानते हैैं कई वो भी जनजातियां
बचा लेती हैैं खुद को सुनामी जैसी आपदाओं में भी
आते हैैं जब भूकम्प उसके पहले कई
प्राणी देते पता अपनी बेचैनियों से
कि आने ही वाली है जल्दी बड़ी आपदा।
हम समझदार तो मानते हैैं बहुत खुद को मानव मगर
समझ पाते नहीं हैैं कि कहती है क्या हमसे वसुंधरा
आपदाओं की कर पाते पहले से कोई तैयारी नहीं
शांति के काल को भी गंवा देते हैैं व्यर्थ में बस यूं ही
करते जाते हैैं उन्नति तो हम खूब कृत्रिम मगर
कटते जाते हैैं उतना प्रकृति की सहजता-सरलता से भी
कौन जाने कि चक्कर में इस पाने-खोने के हम
आगे बढ़ते हैैं या फिर पिछड़ते ही सबसे चले जाते हैैं!
रचनाकाल : 6 मई 2021

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