स्वैच्छिक सजा
राह तो दिखाई थी पूर्वजों ने, मैं ही पर
करता रहा अनदेखी जान-बूझ
बचता रहा यात्रा करने से कठिन
भोगने में मग्न रहा सुख-सुविधा
मान लिया बीत जायेगी यूं ही
जिंदगी ये सारी शांति काल में।
प्रकृति तो उदार थी, अपार दिये संसाधन
कृतज्ञता जताने के बदले पर
लूटा-खसोटा हमने उसको निर्दयता से
मनुष्येतर जीवों पर दुनिया के
जुल्म ढाये पूरी बेशर्मी से।
खत्म हो चुकी है मगर सहनशक्ति प्रकृति की
मांग रही है हिसाब
गिन गिन कर सारे अपराधों का
दे रही है अनगिनती लोगों को
सजा मृत्युदण्ड की
शेष बच रहे हैैं जो
भोगना है उनको आजीवन कारावास
शामिल तो सब ही थे
नोंचने-खसोटने में प्रकृति को
मिली थीं जो लूट में सुख-सुविधाएं
हिस्सा तो बंटाया सबने जाने-अनजाने में
कैसे फिर कोई बच सकता सजा पाने से?
मैं भी स्वीकार करता फैसला सिर-माथे पर
प्रकृति जो भी देगी सजा, उससे इंकार नहीं
चाहता हूं लेकिन खुद करना पश्चाताप
जिंदगी कठोर इतनी चाहता हूं जीना ताकि
धुल जायें सारे ही पाप मानव जाति के
निखर उठे फिर से मनुष्यता
गरिमा उसकी बनी रहे
होना न पड़े किसी के भी आगे शर्मिंदा।
रचनाकाल : 10 मई 2021
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