मजबूरी और मजबूती
ऐसा नहीं कि मुझको डर नहीं लगता है।
मैं नहीं कराता बीमा, मेडिक्लेम
कहा था गांधीजी ने
ईश्वर पर है अविश्वास, ऐसा करना
मुझको भी लगता है कि सुरक्षित जितना ज्यादा
करता हूं मैं जीवन को
यह नीरस उतना ज्यादा होता ज्यादा है
यह बात मगर प्रचलित धारा के
इतनी ज्यादा है खिलाफ
सच कहने में डर लगता है
बन जाऊं ना मैं कहीं पात्र उपहास का।
डर लेकिन सचमुच लगता है जब
खतरा हारी-बीमारी का
नजर सामने आता है
मर रहे महामारी से हर दिन लोग अनगिनत
लाखों से कम बिल बनता नहीं अस्पतालों का
सचमुच यदि बीमार पड़ गया
लाखों रुपए कहां से आखिर लाऊंगा!
दो पल को तब विश्वास डगमगा जाता है ईश्वर पर
तो क्या करके मेडिक्लेम सुरक्षित खुद को कर लूं?
सहसा ही जगेश जैसे तब
आ जाते हैैं याद मुझे सहकर्मी
मामूली पगार में सोच नहीं सकते हैैं जो
लग्जरी वहन करना बीमा या
मेडिक्लेम सरीखी सुविधाओं का
ईश्वर पर रखना विश्वास ही जिनकी मजबूरी है।
अनगिनत लोग हों इस हालत में जहां
वहां खुद को कर लेना सब खतरों से मुक्त
भयानक मुझको लगता है
कि मजबूरी में सहते जितने भी वे कष्ट
उन्हें स्वेच्छा से सहकर
उन्हें चाहता समझाना यह बात
कि मजबूरी का नहीं बल्कि
मजबूती का ही नाम महात्मा गांधी है।
रचनाकाल : 18 मई 2021
Comments
Post a Comment