अवांछित
एक तरफ है मौत का ताण्डव
निखर रही है प्रकृति दूसरी ओर
भयानक कैसा मंजर है!
ग्रीष्मकाल के चरम समय में
छाये हैैं ये कैसे बादल
बूंदाबांदी हरती तो है ताप, मगर
मन में जाने क्यों अनजानी
दशहत सी होती है।
सबकुछ असमय हो रहा इन दिनों
वर्षा ऋतु में पड़ता अकाल
गर्मी में मूसलधार बरसता है पानी।
बच्चे जवान मर रहे महामारी से
दारुण चीखों से दिल दहल-दहल जाता है
लेकिन वन्य जीव जब जंगल से
सड़कों पर आ, कर रहे नृत्य
उल्लसित दिखाई देती है जब प्रकृति
नसें तब लगता है मस्तिष्क की चटक जायेंगी।
अवांछित इतने हैैं क्या हम मानव इस धरती पर
अस्तित्व हमारा ही संकट में आता हो जब नजर
मनुष्येतर तब सारे जीव-जंतु खुश होकर नाचें-गायेंगे?
हे ईश्वर! यह सब साबित हो न हकीकत
जल्दी से जल्दी यह बीत जाय दु:स्वप्न
हमारी मानवता हमको वापस मिल जाय
अवांछित बन कर हम धरती पर जिंदा रह नहीं पायेंगे।
रचनाकाल : 2 मई 2021
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