चक्रव्यूह


मैं नहीं जानता कैसे निकलूं
चक्रव्यूह से गुस्से के
इसलिये नहीं घुसने की उसमें
भरसक कोशिश करता हूं
आसान समझता था खुद को
वश में रखना पहले, लेकिन
जब शुरू किया अपने पर रखना नजर
पता तब चला कि इतना सरल नहीं
अपनी आदतें बदल पाना
इतनी बलशाली होती हैं इंद्रियां
कि मन को कर देतीं मजबूर
कि उनकी रुचियों के अनुकूल तर्क वह गढ़ा करे।
जब देखा गुस्से को भी अपने
जायज ठहराता दिमाग
हो गया तभी चौकन्ना
होकर जब तटस्थ सोचा तो पाया
कारस्तानी सारी मेरे मन की है।
इसलिये नहीं अब करता कभी भरोसा अपने मन पर
उसको अनुशासन के ढर्रे पर रखता हूं
मानक तय जो कर रखा हमारे पुरखों ने
मजबूर स्वयं को करता उन पर चलने को
करता प्रयास मौका ही गुस्से को न मिले आने का
जिसको नहीं भेद पाने की आती कला मुझे
उस चक्रव्यूह में घुसने से बचने की कोशिश करता हूं।
रचनाकाल : 8 अप्रैल 2023

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