परिपूर्णता की चाहत


पहले जब मैं कच्चा था
तब ज्यादा सीधा-सच्चा था
हसरत होती थी कितनी जल्दी
बन जाऊं मैं समझदार
अपनी गलती-कमजोरी को
मुस्कान तले तब ढकता था
कच्चेपन का अहसास सदा ही
नम्र बनाये रखता था।

अब समझदार तो हुआ खूब
दुनियादारी सब सीख लिया
पर अहंकार ने बना दिया मन को कठोर
अब नहीं बची नम्रता पुराने दिन जैसी
विद्वत्ता ने बना दिया
पत्थर जैसा मुझको पक्का।

अब हसरत होती है मन में
बन जाऊं पहले सा कच्चा
यह कैसा अजब छलावा है
परिपूर्ण नहीं लग पाता है क्यों वर्तमान?
रचनाकाल : 2 अप्रैल 2022

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