कल्पना और यथार्थ
मैं अक्सर ही कल्पना लोक में कविता संग चला जाता
फिर सहसा जैसे खुल जाती हो नींद, चौंक कर
लौट आता जीवन के ठोस धरातल पर।
ऐसा तो हर्गिज नहीं कि मुझको कवि कल्पना पसंद नहीं
पर नहीं चाहता कविता मेरी कटे कठोर हकीकत से
जो स्वप्न देखता उसे चाहता हूं यथार्थ में भी बदले
आवाजाही दोनों लोकों में होती रहे निरंतर
बिना कल्पना जीवन इतना ज्यादा नीरस होता जायेगा
जीने के काबिल बहुत दिनों तक नहीं बना रह पायेगा
कट कर यथार्थ से मगर कल्पना भी बेदम हो जायेगी
हो जायेगी इतनी ज्यादा लिजलिजी
कि जीवन से विरक्त हो जायेगी
इसलिये चाहता पुल बनना मैं इन दोनों के बीच
एक होकर दोनों सम्पूर्ण ताकि बन जायं
जिंदगी दोनों बिना अधूरी है।
रचनाकाल : 21-22 जुलाई 2023
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