जिजीविषा
बाबा मेरे थे अस्सी के
जब गिरे, नहीं उठ पाये फिर वे बिस्तर से
अंतिम क्षण तक उम्मीद उन्हें पर बनी रही
फिर से अच्छे हो जायेंगे
फिर घूम सकेंगे अपनी उसी साइकिल से!
आजी को लगता था अपने अंतिम दिन तक
बस किसी तरह हो जाय दूर
यह जलन हाथ और पैरों की
वे फिर से कर सकती हैं सारा काम पुरानी फुर्ती से।
नानी तो मेरी शतक पूर्ति के बाद अभी भी
जिजीविषा के बल पर अपनी
जाकर मुख के पास मौत के, कई बार लौट आई है
यह कैसा है दुर्दम्य हौसला
अंतिम क्षण तक जो जीवन के
उम्मीद बंधाता रहता है!
जीवन का शायद सार यही है जिजीविषा
यह नहीं अगर हो तो मानव
जीते जी भी मुर्दा जैसा बन सकता है
इसके बल पर ही लेकिन अंतिम क्षण तक भी
वह जिंदादिल रह सकता है!
रचनाकाल : 17 अगस्त 2023
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