डरा हुआ आदमी
घूरती हैं उसकी लाल, बड़ी-बड़ी आंखें
और मैं हँस पड़ता हूँ डर कर।
बड़े ऊटपटांग सपने आ रहे हैं इन दिनों
यथा, परसों ही देखा था
अपने ढाई वर्षीय पुत्र को
मेरी चिता को अग्नि देते।
‘कितनी गहन त्रासदी है’
सोचा था मैंने
और निश्चय किया था
अभी जीने का
बजाय इस तरह उसे
छोड़ जाने अबोध।
इन दिनों ढूँढ़ रहा हूँ
जीने के बहाने।
कहीं डर तो नहीं रहा मैं
अपने उस संकल्प से
किया था जो कभी
तीस-पैंतीस के बीच चल देने का?
रोज ही निकल रहे हैं
नये-नये निष्कर्ष इन दिनों
यथा, उस दिन निकाला था हमने
(मैंने और कुमार ने)
कि पत्थर सबसे जीवंत होते हैं
और सबसे जड़ मनुष्य
नहीं, यह अतिशयोक्ति नहीं थी
हमें खुद भी आश्चर्य हुआ था
पर तार्किक रूप से ही पहुँचे थे हम
इस निष्कर्ष पर
कि शुरू में एकदम
आदमी भी रहा होगा मौलिक
कि भिन्न होता रहा होगा
दूसरों से सारा कुछ, उसका
अपने आप में अनूठा
पर धीरे-धीरे विकसित कर
सम्प्रेषण का माध्यम
काट-छाँट कर मनोभावों को
देता गया आकार वह।
इसी तरह ढाल कर
साँचे में सारा कुछ
होता गया जड़
और इतना हुआ जड़
कि खोता गया प्रकृति प्रदत्त
सारी संवेदनाएँ
चूँकि थोड़ा-बहुत सम्प्रेषण
कर लेते हैं पशु-पक्षी भी
अस्तु वे भी साबित हुए
जड़, उतनी ही मात्रा में।
होता है पत्थर चूँकि
एकदम सम्प्रेषण हीन
अस्तु वही साबित हुआ
सबसे सजीव।
जाने क्यों आते हैं
इन दिनों ऐसे ही
खयाल बेसिर पैर के।
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