नौकरी
आफिस की व्यस्तताओं के बीच
सहसा महसूस होती है प्यास
डिब्बे का पानी गरम देख
चला जाता हूँ नल पर
और नजर आती हैं वहाँ
डूबते सूरज की अंतिम किरणें
अनजाने ही बेचैन हो उठता है मन
इस भय से, कि घरवाले खीझ रहे होंगे
कि कहाँ घूम रहा हूँ अब तक
हालाँकि अगले ही पल
समझ जाता हूँ वास्तविकता
कि अब मैं आवारा नहीं, नौकरीपेशा हूँ
कि घर वाले चिंतित नहीं होंगे
(मुझे अनुपस्थित देख)
कि अब मैं काम से लग गया हूँ।
पर मन अवसादग्रस्त हो जाता है
यह सोचकर-
कि लोग जब समझते थे मुझे आवारा
क्या नहीं रहता था तल्लीन मैं
इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कामों में!
फर्क सिर्फ इतना है
कि उसके पैसे नहीं मिलते थे।
अब क्लर्की करता हूँ
और आठ हजार पाता हूँ
घर वाले खुश हैं
लोगों की नजरों में सम्मानित हूँ
क्योंकि कमाता हूँ।
कब दिन बीत जाता है
मुझे भी पता नहीं चलता
यह सोच कर मन कभी-कभी
उदास जरूर हो जाता है-
कि पहले वाले कामों के
पैसे भले नहीं मिलते थे
पर उससे दुनिया थोड़ी बेहतर
जरूर हो सकती थी
मनुष्यता थोड़ी बची जरूर रह सकती थी।
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