महानगर में उदासी
अनथक श्रम के बावजूद
जब पड़ती है आफिस में डाँट
फुंकार उठता है मेरे भीतर का सर्प
और बड़ी मुश्किल से रोक पाता हूँ
उसे जहर उगलने से।
नहीं आती देर रात तक नींद
और बदलता रहता हूँ करवट।
सुबह की सैर में होता है मन कुछ शांत
कि बगल के अस्पताल से डेड बॉडी निकलते देख
फिर हो जाता हूँ उदास।
बच्चे बताते हैं कि जा रहे हैं उनके दोस्त
कहाँ-कहाँ घूमने, गर्मी की छुट्टियों में
समझते हुए भी उनका आशय
चुप रहता हूँ, अनभिज्ञ बन
क्योंकि जानता हूँ कि छुट्टी मिलेगी न बजट बनेगा
कि जीना होगा इसी घुटन में
घर से आफिस और आफिस से घर के बीच
लगाते हुए चक्कर
दिक्कत यह है कि आफिस तो आफिस ही होता है
पर किराये के घर में जीवन गुजारना भी
किसी चुनौती से कम नहीं होता।
याद आता है गाँव, पर वह भी जीने लायक नहीं रहा
आर्थिक अभावों ने उनके तन और ईर्ष्या-द्वेष ने मन को
दूषित कर डाला है।
जाने क्यों पुरानी फिल्मों की तरह
बचपन के गाँव की स्मृतियाँ भी
स्वप्नवत् लगती हैं।
और बजाय उसके वर्तमान में लौटने के
महानगर की उदासी ही
बेहतर लगती है।
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