दु:स्वप्न
देखा था सपने में
किसी को मरते हुए
और जब नींद खुली
रात के एक बजे
रो रही थीं बिल्लियाँ।
हैरान होकर सोचता हूँ
इन्हें कैसे मालूम
मेरे दु:स्वप्न के बारे में!
तो क्या ये भी हैं उसी का हिस्सा
और जारी है अभी स्वप्न?
उठता हूँ जब सुबह
स्मृतियाँ हो चुकती हैं गड्ड-मड्ड
और निर्णय नहीं कर पाता।
स्वप्नों पर मेरा कभी विश्वास नहीं रहा
उनके फलों पर तो कदापि नहीं
पर चीजें आजकल
इसी तरह गड्ड-मड्ड होती हैं
पता ही नहीं चलता
कि स्वप्न चल रहा है या यथार्थ।
दरअसल दोनों का रूप आजकल
एक जैसा होता है
आप निर्णय नहीं कर सकते
कि कौन ज्यादा भयावह है
और होती है आपके
धैर्यबल की परीक्षा, इसी समय
अगर आप बहादुर हैं
तो कर लेते हैं आत्महत्या
और हो जाते हैं एक ही झटके में
सारे तनावों से मुक्त
और अगर ज्यादा बहादुर हैं
तो सहते जाते हैं सब कुछ
और हद से गुजर जाने के बाद
होकर पागल
बड़बड़ाते रहते हैं अपने आप।
महानगरों की जीवनशैली
किसी तीसरे विकल्प की इजाजत नहीं देती।
पर एक और विकल्प है अवश्य
जिसे अपना सकें अगर आप
तो जिंदगी हो सकती है बेहद आसान
करना कुछ खास नहीं है आपको
बस हो जाइए शामिल
चोरी-डकैती-लूटपाट-बलात्कार
की घटनाओं में
और लीजिये आनंद
मुख्यधारा में शामिल होने का
करना बस इतना है आपको
कि मार देना है अपने भीतर के कीड़े को
जिसे कुछ लोग आत्मा कहते हैं।
हो सकता है यह आपके लिए मुश्किल हो
और आड़े आते हों बचपन के संस्कार
पर इतना तो तय है कि
निश्चिंत रह सकते हैं आप
भविष्य की चिंता से
कि मुक्त रहेगी आपकी अगली पीढ़ी
इन झंझटों से
और अगर आपने चूँ-चपड़ की
तो भून देंगे वे आपको भी, गोलियों से।
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