जहाज का पंछी
घाटे में तो नहीं हूँ
जानता हूँ कि नहीं दे पाएगा
नौकरी का आधा भी लेखन
फूलों की सेज नहीं, काँटों का पथ है वह
फिर भी अगर छोड़ना चाहता हूँ नौकरी
चाहता हूँ किताब छपे
तो सिर्फ इसलिए कि वही मेरा देश है
छह वर्ष के साथ के बाद भी
अजनबी लगती है नौकरी।
बर्दाश्त कर सकता हूँ अभाव
सह सकता हूँ घर का असंतोष
कठिनाई यह है पर
तिकड़म नहीं जानता
पैसे देकर किताब छपाना
बेशर्मी मानता।
इसीलिए रहा आया
यहाँ भी फिसड्डी
होता रहा आहत।
कर रहा अंतिम प्रयास अब
भेज रहा पाण्डुलिपि
प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में
छापा अगर उन्होंने
तो छोड़ दूँगा नौकरी।
सच तो पर यह है
कि मानता हूँ हर प्रयास अंतिम
मन नहीं मानता।
जहाज के पंछी जैसा
बार-बार उड़ता है
लौटता है बार-बार।
सब कुछ जहाज पर है
खाने या पीने की
किंचित असुविधा नहीं
घर लेकिन नहीं वह।
नौकरी भी ऐसी है।
लौटना मैं चाहता घर
कविता के पास
रास्ते में बैठे पर
कितने ही मठाधीश
पहुँचने नहीं देते घर।
व्याकुल पंछी की तरह
उड़ता मैं बार-बार
लगाता हूँ चक्कर
दीखता न कोई ठाँव
छूटता नहीं जहाज।
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