मशीनों का शहर


हफ्ते में सिर्फ एक दिन मिलती है छुट्टी
लेकिन उस छुट्टी के बाद, जब आता हूँ ड्यूटी
आफिस पराया लगने लगता है।
ऐसा ही दिन है आज
बाहर आसमान पर बादल छाये हैं
रेडियो पर संगीत बज रहा है
और कम्प्यूटर के सामने बैठे हुए
मुझे रुलाई आ रही है।
अजनबी लगता है संस्थान
मेरे सपने दूसरे देश में बसते हैं।
मैं नहीं बनना चाहता मशीन
करना चाहता हूँ खुली हवा में काम
खेतों में, खलिहानों में
और जब हो जाऊँ थक कर चूर
रचना चाहता हूँ कविता
सुनना चाहता हूँ कहानियाँ
बड़े-बूढ़ों की अनुभवी जुबान से
गाँव की चौपाल में।
भूलता नहीं मुझे अपना गाँव
लौटना चाहता हूँ बार-बार उसकी गोद में
लेकिन हर बार थाम लेता है मेरा कदम
भूखों मरने का भय
हावी हो जाता है दिमाग पर।
वह बचपन वाला गाँव भी तो नहीं रहा अब
जाऊँ भी अगर कभी तो, उजाड़ सा लगता है
लील गए हैं सारे युवकों को
देश के महानगर
और जो बच गए हैं जाने से
उनकी दशा देखी नहीं जाती।
जानता हूँ कि मेरे गाँव में रहने का
यह सर्वाधिक जरूरी समय है
कि सबसे महत्वपूर्ण कविता
वहाँ देख रही है मेरी राह
लेकिन चाहने पर भी बार-बार
नहीं जुटा पाता साहस
अपने साथ पत्नी-बच्चों को
भाड़ में झोंकने का।
तिल-तिल कर मरते हुए, करता हूँ नौकरी
और बनता हूँ हिस्सा उस शहर का
जो चूस रहे हैं खून
और मर रहे हैं गाँव।
यह मशीनों का शहर है
जहाँ ‘गँवारों’ के लिए कोई स्थान नहीं।
मैं भी चलाते हुए कम्प्यूूटर
रोकता हूँ रुलाई
और बन जाता हूँ मशीन।

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