अंधेरे में
तनी हुई रस्सी है
दोनों ओर खाई है
चलना ही जीवन है
रुकना ही मृत्यु।
जानता है आदमी वह
चलता ही जाता है
इस छोर से उस छोर
उस छोर से इस छोर।
कहीं कोई पड़ाव नहीं
न ही कोई लक्ष्य
दीखती हैं चारों ओर
खाइयाँ ही खाइयाँ
अंधकार ही अंधकार।
सोचता भयभीत वह
यहाँ कहाँ आ गया
दीखता न कोई कहीं
सुनसान बियाबान।
सहसा करता है याद
साथ में तो भीड़ थी
रास्ता वह भटका नहीं
छूटे फिर लोग कहाँ?
आता है उसे याद
छूटते गए थे लोग
लेते हुए शार्टकट,
सामने तो उसके पर
सीधा पथ यही था।
इतना भी याद नहीं
हो गया अकेला कब
धुन में ही अब तक तो
चला आया यहाँ तक।
क्या करे कहाँ जाय
आगे पथ दुर्गम है
पीछे भी कहीं कोई
दीखता न दूर तक।
चक्कर लगाते हुए
इस छोर उस छोर
बीतती है जिंदगी
मरता है तिल-तिल।
जानता है यह भी वह
काटते ही रस्सी
पहुँच तो वह जायेगा
इस पार या उस पार
पुल मगर टूटेगा।
क्या करे कहाँ जाय
बढ़ जाय आगे या
खींच ले पीछे पैर
सूझता ही नहीं कुछ।
इसी कशमकश में वह
चलता ही जाता है
इस छोर, उस छोर।
मन में तो लेकिन पर
बढ़ता ही जाता है
क्षण-क्षण, पल-पल
घमासान-घमासान।
लगता है जल्दी ही
सुबह होने वाली है।
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