ताकि सनद रहे


लिख रहा हूँ यह कविता
ताकि सनद रहे
निर्णायक मोड़ पर पहुँच चुकी है अग्निपरीक्षा
नहीं जानता कल रहूँ न रहूँ
असम्भव सा हो गया है पीठ के बल लेटना
और जब लेटता हूँ पेट के बल
दुखने लगता है सीना।
यह तो हुई शारीरिक बात
मानसिक अवस्था भी उत्साहजनक नहीं है
कल फिर समझा रहे थे
प्रतिष्ठित कवि शुक्लजी के पुत्र
मेरा हठ देख गुस्सा भी हुए
‘जानते हैं पिताजी के तीन उपन्यासों की
कितनी रायल्टी देता है प्रतिष्ठित प्रकाशन!
साल भर में तीन-सवा तीन हजार रु पए सिर्फ’
कहा था उन्होंने और आगाह किया
कि भाड़ में न झोंकूँ बच्चों का भविष्य।
पर अब हाथ में कहाँ रहा यह सब मेरे!
बीज तो बो चुका था बहुत पहले ही
और अब फूलने-फलने को तैयार
हरा-भरा पेड़ काटना, मेरे बस में नहीं
क्या यह कठिन नहीं है
अपने ही पुत्र की हत्या के समान?
भले कड़वा लगे दुनिया को
पर अब तो उसी पेड़ का फल बाँटना
मेरा कर्तव्य है
स्वादिष्ट भले न हो,
पर स्वास्थ्यवर्धक यह अवश्य है
हो सकता है सालों लग जाएँ
दुनिया को यह समझने में
और विदा ले चुका होऊँ मैं तब तक
सीता की तरह देकर अग्निपरीक्षा।
उसी दिन के लिये लिखे जा रहा हूँ मैं
कि न डरे कोई आग से
भस्म भी हो गया अगर मैं
तो यह मेरी कमी होगी
नहीं बन पाया होऊँगा सोना
और कचरे को तो जलना ही था
लिखे जा रहा हूँ मैं यह, ताकि सनद रहे
और न झिझके कोई करने से
फिर नई शुरुआत।

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