विनाश के बाद


समय, धीरे चलो
धीरे चलो समय
इतनी जल्दी भी क्या है!
तुम्हारी रफ्तार तो इतनी तेज है
कि हफ्तों लग जाते हैं कभी-कभी
तुम्हें पाने में, भागते-भागते।
कुछ नहीं रखा आगे
बल्कि अगर मैं कहूँ
कि विनाश ही है वहाँ
तो चौंक मत उठना तुम।
नहीं समय-
डालकर हम पर सम्पूर्ण भार
दोषमुक्त नहीं हो सकते तुम।
हम तो झाँकते हैं जितना भी
सुदूर अतीत में
गलत ही नजर आती है
तुम्हारी दिशा।
हमने तो बस हासिल था जो
केवल राजों-महाराजों को
सर्वसुलभ कर दिया उसे
प्रजा को भी राजा बना दिया।
सच कहना समय
क्या हमारी नीयत खराब थी?
शायद तुम कहो
कि राजा को ही मिटा देना चाहिये था हमें
उसकी निरंकुशता के साथ-साथ
उसके ऐशो-आराम पर भी
विराम चिह्न् लगा देना चाहिये था।
पर यह तो हमारा-
जीवन लक्ष्य था समय,
इसे भला हम कैसे मिटा देते!
बल्कि निकाल कर एकाधिकार से
हमने इसे सर्वसुलभ किया
तो क्या यह क्रांति नहीं थी?
नहीं समय,
यह सर्वग्रासी विकास
दस-बीस या सौ-दो सौ साल का नहीं
इसकी नींव तो
बहुत पहले ही पड़ चुकी थी
तुम्हारी कोख में।
(कौन जाने,
तुम्हारा वह आदर्श वैदिक युग
कभी था भी अथवा कल्पना ही था)
फिर अकेले हमें
कैसे दोषी ठहरा सकते हो तुम!
नहीं, हम भाग नहीं रहे
बावजूद सारी शिकायतों के
स्वीकार करते हैं हम
अपनी विरासत को।
क्या हुआ अगर बढ़ते हैं
शीत, ताप और मच्छर
स्वागत करते हैं हम
बाढ़ और सूखों का भी।
लेकिन बावजूद इस सारे विनाश के
अगर बच रहे हम
तो फिर बनायेंगे, एक नया विश्व
आशाएँ हमारी अभी
मरी नहीं हैं
और बाहुबल भी चुका नहीं है
हमें पूर्ण विश्वास है
कि एक बार फिर
गूँज उठेगा समूचा विश्व
शिशुओं की किलकारियों से।

और तब, मर सकेंगे
शांति के साथ हम।
अगर रह जायेगी कसक
तो बस इतनी ही
कि इस सारे ध्वंस के जिम्मेदार
समझे गए, केवल हम!

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