खलनायक


बनना मैं चाहता हूं राम जैसा
खुद को पर रावण के स्तर से भी
नीचे गिरा पाता हूं
सीता को उनकी जो इच्छा बिना
छू भी नहीं सकता था।
मंत्रमुग्ध करती है
मुझको नैतिकता उन युद्धों की
ढलते ही सूरज जब
कोई भी वार नहीं करता था
दुश्मन के शिविरों में जा करके
मिलते थे एक-दूसरे से लोग प्रेम से।
दशरथ से ले करके राजपूत राजों तक
वचन पालन खातिर जान देने की
अद्भुत मुझे लगती परम्परा
मूल्यों की खातिर जो जीते थे
दुर्लभ अब लगते हैैं लोग वह।
गीता पर हाथ रख
झूठ बोलते हैैं जब आज हम
पूर्वजों की संचित नैतिकता को
खत्म करते जाते हैंं 
सोचते नहीं कि जब भविष्य में
जरूरत पड़ेगी खुद को
सही साबित करने की
किसकी दुहाई देंगे
खो देंगे सारा विश्वास जब!
मूल्यों को करते हुए खोखला
हम भी होते जाते हैैं खोखले
राम के आदर्श तो अब
स्वप्न जैसे लगते हैैं
रेप-गैंगरेप जैसी खबरोंं से
पटे पड़े देख कर अखबारों को
होता नहीं होगा क्या
रावण भी हमारे ऊपर शर्मिंदा!
उसकी जगह खलनायक के स्थान पर
हमको नहीं रखेंगी क्या
आने वाली पीढ़ियां?
रचनाकाल : 24 अगस्त 2021

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक