बचपन
बचपन में, जब मैं छोटा था, कई बातों से डर लगता था
भइया जब देर से घर आयें, मां कहीं अंधेरे में जाये
दिल धक्-धक् करता रहता था।
ननिहाल में जब पढ़ता था, अक्सर लगता था
क्यों दूर कर दिया मां ने मुझको अपने से
जब बड़े डराने को कहते थे कोई बात भयानक
मुझको सबकुछ सच्चा लगता था
मैं छुप कर, सोते समय रात में घण्टों रोया करता था।
जब बड़ा हुआ थोड़ा तो पहुंचा बाबूजी के पास
रात को पर जब वे ड्यूटी पर जाते थे तो मन करता था
रुक जायें वे कहीं न जायें आज की रात
अकेले घर में आधी रात का सन्नाटा भय भरता था
कुछ अनहोनी हो जाने का डर लगता था।
कोई भी जान नहीं पाता था बचपन के उस भय को
अनगिनती थे जो, लगते थे पर तुच्छ बड़ों की नजरों में
तब मुझको लगता था होगा कुछ खास सयाना बनने में
पर बड़ा हुआ तो जाना वह सब मृग-मरीचिका जैसा था
बचपन में ऐसा लगता था हो जाऊं कितनी जल्द बड़ा
होने के लेकिन बाद बड़ा, अब लगता है बचपन ही सबसे निर्मल था!
त्रासदी मगर जो सहते हैैं हम बचपन में
होते ही बड़े भूल जाते हैैं क्यों उन सभी अनुभवों को
क्यों नहीं सोचते यह कि सोचते होंगे क्या बच्चे चीजों के बारे में
जो बचपन हमको होकर बड़ा सुनहरा लगने लगता है
क्या सचमुच बचपन में भी वह उतना ही लगा सुनहरा था?
क्या बच्चे आज हमारे वैसा ही निष्फिक्र सुनहरा जीवन जीते हैं?
रचनाकाल : 2 अक्तूबर 2021
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