मनौती
हे गंगा मइया!
व्याकुल है मन बेहद
हरती हो पाप सबके
हो सके तो मेरे मन की
व्यथा को भी हर लेना
बना देना पहले जैसा सरल हृदय
बोझ नहीं सहा जाता ज्ञान का
डराता है मुझको अब
अपना ही पाण्डित्य।
सचमुच ही शर्मिंदा हूं
हे गंगा मइया कि
बुद्धि मेरी कहती है
तुम भी अन्य नदियों सी
नदी निर्जीव हो
माता नहीं धरती भी
मामा नहीं चंद्रमा
देख आये वैज्ञानिक
दूर अरबों मील तक
बेजान सारा है आसमान
कहीं नहीं स्वर्ग-नरक
बच्चों जैसा हमको बहलाते रहे
सदियों पुराने ऋषि-मुनि अब तक।
सच है कि जानने को बाकी हैैं
बहुत सारी चीजें हमको अभी भी
जान चुके जितना पर
वही अब डराता है
छूटती ही जाती है सरलता
जटिल होता जाता मन जलेबी सा
खोकर के सारे विश्वासों को
जिंदा हम कैसे रह पायेंगे!
हे गंगा मइया मुझे शक्ति दो
लौट सकूं उन्नति की राहों से
मान सकूं माता तुमको फिर से
मन में हो डर कि अगर
किया तुमको गंदा तो
दे दोगी शाप तुम
पीपल और तुलसी के पौधे भी
श्रद्धा संग भय यह उपजाते रहें
काटा अगर उनको तो
हो जायेगा सर्वनाश।
सचमुच कहता हूं मां
इतनी पूरी कर दो मनोकामना तो
सवा किलो लड्डू चढ़ाऊंगा
जानता हूं तुमसे यह
कर रहा हूं सौदा मैं
ऐसा जब करती थी मेरी मां
मानती थी कोई मनौती तो
मुझको वह व्यापार लगता था
‘ईश्वर’ से करती हो सौदा तुम!’
कह कर मैं उसको झिड़कता था
सच तो पर यह है कि
थोड़ी सी सौदागर मेरी मां
मुझसे लाखों गुना सरल हृदय थी
उससे लाखों गुना हूं मैं जानकार
लेकिन आज तुमसे मां
चाहता हूं सौदा करना
मुझको पहले जैसी दे दो सरलता
ले लो मुझसे मेरी सारी जानकारी
ज्ञान का यह बीहड़ वन
मुझको अब बहुत ही डराता है।
रचनाकाल : 22 अक्टूबर 2021
Comments
Post a Comment