सुख-दु:ख

अक्सर सुख के क्षण में मुझको यह डर लगने लगता है
मैं कहीं समय तो नहीं व्यर्थ ही अपना करता जाता हूं!
दु:ख-कष्टों के बीच अगर कुछ सार्थक नहीं किया तो भी
भय नहीं सताता अर्थहीन ही समय बीतते जाने का
सुख के दिन में पर काम नहीं लेता शरीर से उसकी अंतिम हद तक तो
अपराधबोध मन में भर जाता नष्ट समय को करने का।
इसलिये नहीं डरता दु:ख से, निश्चिंत भाव से सहता हूं 
आते ही लेकिन सुख के हो जाता सतर्क
अक्सर सुख ने ही मुझको अपने पथ से भरमाया है
निर्मम इसीलिये हो जाता हूं मैं अपने प्रति
जब तक सुख के दिन रहते हैैं, मैं खुद पर अंकुश रखता हूं।
रचनाकाल : 3 अक्तूबर 2021

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