अंतहीन यात्रा


जब भी लगता है सब ठीक-ठाक
और नहीं घेरती मन को चिंता
घबरा जाता हूँ अचानक
टटोलता हूँ अपनी सम्वेदनाएँ
कहीं मरीं तो नहीं वे!
दरअसल समय इतना कठिन है
कि चिंतामुक्त रहना भी अपराध है
मिले हैं मुझे विरासत में
प्रदूषित पृथ्वी और रुग्ण समाज
खूब कमाना और खूब खाना ही है
मेरे समकालीनों का जीवन लक्ष्य
कि त्याग का मतलब अब
तपस्या नहीं पागलपन है
फिर कैसे रह सकता भला मैं चिंतामुक्त!
इसीलिये आता जब
कभी क्षण खुशी का
होता भयभीत भी हूँ साथ ही
कि पथरा तो गई नहीं सम्वेदनाएँ!
टूटता है बदन और
आँखें भी बोझिल हैं नींद से
फिर भी लिखता कविता
डरता हूँ सोने से
कि नींद अगर रास्ते में आ गई
तो शायद कभी न हो सवेरा.

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