खुदगर्ज इंसान



कर तो बहुत कुछ सकता था
पर नहीं कर पाया
उतना ही मुझे भी मिला था
जितना सबको मिलता है जीवन
पर शामिल रहा मैं भी
कथित विकास की अंधी दौड़ में ही
जो ऐशो-आराम देने के सिवा
कहीं नहीं ले जाती थी
दुह कर प्रकृति के संसाधनों को
मैं भी भोगता रहा सुख
और पर्यावरण की तबाही में
बंटाता रहा दुनिया का हाथ
फिर क्यों व्याकुल हूं
विनाश की बेला में?
 क्यों चाहता हूं कि मिले एक मौका
सब कुछ सुधारने का!
तूफान यह गुजर जाने के बाद
क्या फिर से चूसने नहीं लगेंगे हम
प्रकृति का खून?
जानता हूं कि प्रकृति नहीं है इतनी कठोर
मौका तो वह हमें अवश्य देगी
पर इतने सीधे-सरल नहीं हैं हम मनुष्य
 भयभीत हूं यह सोच कर
कि फिर से शामिल हो जाऊंगा
मैं भी उसी अंधी दौड़ में
अपने ऐशो-आराम के लिए
फिर से बन जाऊंगा, खुदगर्ज इंसान.
रचनाकाल : 21 अप्रैल 2020

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