अपरिग्रह की ओर
एक रात से ज्यादा रुकते थे न कहीं
संन्यासी जो प्राचीनकाल में
पढ़कर उनके बारे में डर-मिश्रित विस्मय होता था
अपरिग्रह का वह चरम बिंदु सा लगता था।
मैं इतना ज्यादा परिग्रही था कभी
सुरक्षित करने की अपना भविष्य
कोशिश में हरदम रहता था
जब पूरी होती थीं न कभी
दैनंदिन की आवश्यकता
तब तो चिंता होती ही थी
पूरी होते ही मगर, दूसरे दिन की चिंता
मन में उठने लगती थी
हद तो यह हो गई कि जब
बच्चे भी लगे कमाने
चिंता लगी, खर्च हो जाता सब
बढ़ने ही पाता नहीं बैंक-बैलेंस कभी!
सहसा ही तब अहसास हुआ
रुकने वाली है नहीं
परिग्रह की यह दौड़ कभी भी
तब से शुरू कर दिया
अपरिग्रह को अपनाना
दिनभर से ज्यादा की चीजों के बारे में
अब नहीं सोचता कभी
सतत कोशिश करता, अच्छे से अच्छा
सदुपयोग कर पाऊं पूरे दिनभर का
चिंता में बीता करता था जो समय
रोज चिंतन में बीता करता है
मैं खुश रहता हूं वर्तमान में ही हरदम
आने वाले कल की चिंता
अब मेरा ईश्वर करता है।
रचनाकाल : 4 दिसंबर 2023
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