अनासक्ति
जब नहीं समझता था पहले
मैं गूढ़ रहस्य प्रकृति के
तब रहता था हरदम परेशान-हैरान
दोष ईश्वर पर सारा मढ़ता था।
अब इच्छा होती है जब सुख पाने की
दु:ख कष्टों को सहने लगता हूं
जब भवन बनाना हो ऊंचा
मजबूत नींव अधिकाधिक करने लगता हूं।
पाने को धन-संपदा
दान करने लगता हूं खूब
चाहता हूं जो उसका
उल्टा करने लगता हूं।
भागा करता था जब तक मैं
पीछे-पीछे परछाईं के
वह मुझसे भागा करती थी
अब भागा करता उससे जब
वह मेरे पीछे-पीछे भागा करती है।
सिक्के के दो पहलू जैसी
सारी चीजें हैं जुड़ी हुई
अस्तित्व नहीं हो सकता दिन का रात बिना
दु:ख बिना नहीं सुख का अनुभव हो सकता है।
रचनाकाल : 26 नवंबर 2023
Comments
Post a Comment