नई जमीन


चूर हो गया हूं थककर
चला जा रहा हूं नीम बेहोशी में
अपनी डगर पर
मन लेकिन बेचैन है कि
नहीं तोड़ पा रहा नई जमीन
नहीं जुटा पा रहा हिम्मत
अनजानी राहों पर चलने की
जानता हूं कि अपनी-अपनी कक्षा में
चलना ही सबकी नियति है
पर नहीं चलना चाहता मैं
घिसी-पिटी लकीर पर
अज्ञात में छलांग को ही
बना लेना चाहता हूं दायरा
भले ही जवाब दे शरीर पर  
रुकना नहीं चाहता हूं थककर
मानसिक शक्तियों के बल पर
जारी रखना चाहता हूं
यात्रा अज्ञात की।

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक