शब्दों की खेती


किसान हूं मैं शब्दों का
करता हूं खेती कविताओं की
तोड़ता हूं नई जमीन
फसल ताकि अच्छी हो
फलें-फूलें कविताएं
पेट भरें लोगों का मानसिक।
मैं भी गरीब हूं किसानों सा
मुझको भी लूटते हैैं
किताबों के व्यापारी
रहता हूं हाशिये पर ही सदा।
हो रही हैैं इन दिनों जो साजिशें
खेतों से बेदखल कर
किसानों को बनाने की मजदूर
चाहते हैैं वैसे ही सत्ताधीश
मैं भी गुणगान करूं उनका
देते हैैं लालच सुविधाओं का
बन सकूं उनका अगर गुलाम।
खोना लेकिन स्वाभिमान
मुझको मंजूर नहीं
हाशिये पर रह कर भी
कलम से हिलाऊंगा सत्ता को
झेलूंगा प्रताड़ना
फूट डालने की समाज में
कुत्सित चालों को सरकार की
होने नहीं दूंगा सफल
दूषित नहीं होने दूंगा
लोगों की मनोवृत्ति
नहीं फैलने दूंगा
जहर समाज में।

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