मशीनी दुनिया में
रास्ता तो सही है, पर थक चुका हूं
पांव बोझिल, कर रहे इंकार चलने से
नींद लेती जा रही आगोश में
समय पर यह नहीं है विश्राम का
हो गई है खत्म सारी जमा-पूंजी
सूख कर पथरा रहा मन भी
नजर जाती जहां तक
दीखती है रेत ही चहुंओर
कांटेदार कैक्टस राज करते हैैं मरुस्थल पर
कि मैं भी बन न जाऊं सूखकर कांटा
इसी डर से शरण लेता मधुर संगीत की
सुर-ताल-लय से बद्ध रचता छंद
कट जाये समय घनघोर दुपहर का
कि ठण्डी छांह पाऊंगा कभी तो
ले तनिक विश्राम फिर से चल सकूंगा
खुरदरी उस राह पर जो भरी कांटों से
मगर गंतव्य का जो
है निकटतम मार्ग सबसे
इस समय तो प्राथमिकता है यही
खुद को बचा लूं रेत बनने से
कि बंजर भूमि का मंजर भयावह
सोख ही ना ले कहीं रस
खत्म हो जाये न सब संवेदना
मशीनीकृत न हो जाये सभी कुछ
भीतर भी पसर जाये न रेगिस्तान
इससे छोड़ नीरस मार्ग
रचता हूं सरस कविता।
Comments
Post a Comment