शून्य से शून्य तक की यात्रा


जब मैं प्रवीण नहीं था लिखने में
उमड़ते थे भाव घनघोर लेकिन
दर्ज नहीं कर पाता था उनको सुंदरता से
होती थी हसरत तब काश! बन पाता मैं
जादूगर शब्दों का।
आज मैं हूं सिद्धहस्त लिखने में
चमत्कृत कर सकता हूं लेखन से
राई का पहाड़  बना सकता हूं।
सूख गये भाव लेकिन जाने कहां
खो गई मासूमियत वो पहले की
सीख गया देना जवाब अब
ईंटों का पत्थर से
हो गया मरुस्थल सा कठोर मन।
नियति की यह कैसी विडंबना है
मिल नहीं पाते दोनों छोर कहीं
एक को पकड़ने की कोशिश में
दूजा छूट जाता है!
लेकिन नहीं चाहता हूं
दोनों को पाने का
संघर्ष छोड़ना
पाने की खातिर वह
पहले सा निर्दोष मन
ठगा जाना चाहता हूं स्वेच्छा से
सह लेना चाहता हूं
चुपचाप ईंटों के वार को।
पहले मैं शून्य था
जानता था कुछ भी नहीं
जानने के बाद सब कुछ
फिर से अब शून्य वही
बन जाना चाहता हूं।
रचनाकाल : 26 दिसंबर 2020

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