अंतहीन यात्रा


चलते चलते थककर
बैठता हूं सुस्ताने जब
लम्बा लगने लगता है विश्रांतिकाल
दूर किये बिना ही थकान फिर से
चल पड़ता हूं गंतव्य की ओर
थकी हुई देह में पर
भरता ही जाता है चिड़चिड़ापन
होती जाती है गायब ताजगी
नींद में ही मानो चलता जाता हूं।
गलती तो आती नहीं नजर कहीं
मार्ग भी सही है चलता जिस पर
सूखता ही जाता पर जीवन रस
डरता हूं बन न जाऊं रेत कहीं
कैसी है कठिन यह परीक्षा?
लौटने का लेकिन सवाल नहीं
राह जो दिखाई है पूर्वजों ने
चलता ही जाता उस पर निरंतर
छोड़ करके चिंता परिणामों की।
रचनाकाल : 18 दिसंबर 2020

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