घुसपैठिया

मैं क्रोधानल के चक्रव्यूह में
सिर्फ जानता घुसना
कैसे निकलूं बाहर बिना क्षत-विक्षत हुए
मुझे मालूम नहीं।
हर बार यही होता है जब मैं गुस्से में
आपे से बाहर होता हूं
चाहूं कितना भी करना खुद को शांत
नियंत्रण ही रह जाता नहीं स्वयं पर
अहंकार जाने कैसा मुझ पर हावी हो जाता है।
उन चंद क्षणों में इतना ज्यादा मैं कठोर हो जाता हूं
चाहे हो जाये सर्वनाश पर
लेता हूं जिद पकड़, झुकूंगा नहीं
इधर से उधर समूची दुनिया चाहे हो जाये।
कुछ देर बाद जब गुस्सा होता शांत
समूची दुनिया तो रहती है अपनी जगह मगर
मेरे भीतर सब उलट-पुलट हो जाता है
क्रोधानल से कोमल भाव सभी जल जाते हैैं
जो अहंकार हावी था वह
पाकर खुराक अपनी, फिर से सो जाता है
पर मीलों पीछे कर देता है, मेरी मानवता को
बरसों पहले चला जहां से था
फिर वहीं दुबारा खड़ा स्वयं को पाता हूं।
लड़ता हूं अपने भीतर पैठे दानव से मैं लगातार
जो हावी हो मेरे शरीर पर
मुझे पराजित करता है
घुसपैठिया कोई कब्जा कर ले मेरे घर पर
तो उसे निकाले बिना, चैन से कैसे मैं रह सकता हूं!
रचनाकाल : 6 जुलाई 2021

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